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बहुत सहज हो जाते के भी अपने ख़तरे हैं / अमित
Kavita Kosh से
बहुत सहज हो जाने के भी अपने ख़तरे हैं
लोग समझने लगते हैं हम गूँगे-बहरे हैं
होरी को क्या पता नहीं, उसकी बदहाली से
काले ग्रेनाइट पर कितने हर्फ़ सुनहरे हैं
धड़क नहीं पाता मेरा दिल तेरी धड़कन पर
मंदिर-मस्ज़िद-गुरुद्वारों के इतने पहरे हैं
पढ़-लिख कर मंत्री हो पाये, बिना पढ़े राजा
जाने कब से राजनीति के यही ककहरे हैं
निष्ठा को हर रोज़ परीक्षा देनी होती है
अविश्वास के घाव दिलों में इतने गहरे हैं
मैं रोया तो नहीं नम हुई हैं फिर भी आंखें
और किसी के आँसू इन पलकों पर ठहरे हैं
बौनो की आबादी में है कद पर पाबन्दी
उड़ने लायक सभी परिन्दो के पर कतरे हैं