भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

बहुत सारे संघर्ष स्थानीय रह जाते हैं / व्योमेश शुक्ल

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

प्रणय कृष्ण के लिए

जगह का बयान उसी जगह तक पहुँचता है। वहीं रहने वाले समझ पाते हैं बयान उस जगह का जो उनकी अपनी जगह है।

अपनी जगह का बयान अपनी जगह तक पहुँचता है।

एक आदमी सुंदर आधुनिक विन्यास में एक खाली जगह में चकवड़ के पौधे उगा देता है तो रंगबिरंगी तितलियाँ उस जगह आने लगती हैं और उस आदमी को पहचान कर उसके कन्धों और सर पर इस तरह छा जाती हैं जैसे ऐसा हो ही न सकता हो। ऐसा नहीं हो सकता यह जगह के बाहर के लिए है और ऐसा हो सकता है यह जगह के लिए।

तितलियों के लिए तो ऐसा हो ही रहा है।

किस्सों-कहानियों में ख़तरनाक जानवर की तरह आने वाले एक जानवर के बारे में जगह के लोगों की राय है कि वह उतना ख़तरनाक नहीं है जितना बताया जाता है। जबकि जगह के बाहर वह उतना ही ख़तरनाक है जितना बताया जाता है।

जगह के भीतर का यह अतिपरिचित दृश्य है कि गर्मियों की शाम एक बंधी पर सौ साँप पानी पीने आते हैं। जगह में जब साँप पानी पी रहे होते हैं तो जगह के बाहर से देखने पर लगता है कि बंधी से सटाकर सौ डंडे रखे हुए हैं। जगह एक ऐसी जगह है जहाँ साँप को प्यास लगती है। जगह के बाहर न जाने क्या है कि साँप को प्यास नहीं लगती और वह डंडा हो जाता है। जगह के बाहर लोग डंडे जैसी दूसरी-तीसरी चीज़ों को साँप समझ कर डरते रहते हैं।

जगह के बाहर एक आदमी के कई हिजड़े दोस्त हैं। वे उससे पैसा नहीं मांगते, उसे तंग नहीं करते, उसे हिजड़ा भी नहीं मानते, फिर भी उसके दोस्त हैं। वे उससे कभी-कभी मिलते हैं लेकिन जब मिलते हैं दोस्त की तरह। जगह में लोग एक-दूसरे से बात करते हैं, मुलाकात न हो पाने पर एक-दूसरे को याद करते हैं और एक-दूसरे के दोस्त होते हैं। जगह के बाहर मुलाकातें नहीं हो सकतीं। न दोस्त होते हैं, न लोग होते हैं, न होना होता है, न न होना होता है।