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बहुत हुआ बस रहने दो / महेन्द्र भटनागर


दीख रही हैं भरी घृणा से
आज तुम्हारी आँखें,
चेहरे की सिहरन बतलाती है
घोर उपेक्षा के भावों को;
और तुम्हारी मुक्त हँसी में
कितना व्यंग्य भरा है,
कितना अपमान भरा है !
बातों का आशय इतना संशयग्रस्त
कि बिलकुल भी पता नहीं पड़ पाता
सत्य रहस्य तुम्हारा
मेरे प्रति इस निर्मम आकर्षण का !
जिससे मैं बेचैन तड़प उठता हूँ
मूक सिनेमा के चित्रों के पात्रों के समान
होंठ उठाकर रह जाता हूँ मौन !
कंठ से निकले स्वर
अन्दर की अन्दर पी जाता हूँ,
सुन लेता हूँ हर उलटी-सीधी बातें।
पर, मन भर-भर आता है —
कि कौन हो तुम जो मेरे चुप रहने पर
आपत्ति करो ?
नाहक मुझको तंग करो ?
उकसाओ, मैं बोलूँ
और तुम्हारी बेहूदी व्यर्थ अनर्गल
बातों का उत्तर दूँ ?
जिनका अर्थ नहीं कोई,
जो रुचि से मेल नहीं खातीं,
जिनको सुनकर भाव-लहरियाँ
न हृदय में आ टकरातीं !
बहुत हुआ बस रहने दो —
मत समझो इस चुप्पी का अर्थ
कि मैं निरा मूर्ख बुद्धि-हीन हूँ,
मत समझो तन निर्बल है तो
मन से भी शिथिल दीन हूँ !
मेरे उर का प्याला
लबरेज़ भरा है जीवन-रस से,
मेरे अन्दर की हर धमनी में
नूतन रक्त दौड़ रहा है
बिजली की रेल सरीखा !
मेरी आँखों में
स्नेह भरा है सागर-सा,
आत्मा में
दृढ़ता, बल, स्वाभिमान, ओज भरा है
सूरज की ज्वाला-सा अक्षय !
जिसको
परिवर्तन औ’ षड्यंत्र
मिटाने में क़ामयाब हो न सकेंगे !
जिसकी
युग-युग से अविरल जलती लौ की
आब म्लान न हो पाएगी;
चाहे एक बड़े पैमाने पर
असमय टूट पड़ें
अगणित सूर्य-ग्रहण !
निश्चय होगा प्रति अंग दहन।
मत जूझो, मत पूछो आगे
बहुत हुआ बस रहने दो !
मेरी जीवन-धारा को
निज पथ पर बहने दो !