बहुत हैं रोज़-ए-सवाब-ओ-गुनाह देखने को / मनमोहन 'तल्ख़'
बहुत हैं रोज़-ए-सवाब-ओ-गुनाह देखने को
के हम हैं ज़िंदगी-ए-बे-पनाह देखने को
अनेगी अब नज़र इंकार सो रूके है सभी
ख़ुद अपनी आँख से अपनी निगाह देखने को
मेरी नवा को जो पाकीज़गी अता कर दे
तरस रहा हूँ वो मासूम चाह देखने को
मैं संग-ए-राह नहीं दिल के इस दोराहे पर
खड़ा हुआ हूँ फ़क़त अपनी राह देखने को
मिला दिया हमें अपनों से शुक्रिया ऐ वक़्त
यही मिले थे हमें यूँ तवाह देखने को
तुनुक-मिज़ाज हैं हम यूँ न रोज़ रोज़ मिलो
बहुत है आओ अगर गाह गाह देखने को
जो मेरे बारे में मुझ से भी मोतबर है कोई
मैं जी रहा हूँ तेरा वो गवाह देखने को
सुन ऐ हमारे सियाह ओ सफ़ेद के मालिक
हम आए हैं वो सफ़ेद ओ सियाह देखने को
तुम आँख तक नहीं मलते मचा हो जब कोहराम
तुम आँख खोलते हो सिर्फ वाह देखने को
वो चुप तो यूँ है कि आगाह जिन को करना था
जिए न लम्हा-ए-यक-इंतिबाह देखने को
ये किस की आह लगी घर नहीं कोई मिलता
हर इक मकान है ख़ुद सब की राह देखने को
खुला के दीद-ए-इबरत निगाह कोई न था
उठी थी यूँ तो हर इक की निगाह देखने को
जो सब की जान का जंजाल ये निबाह है ‘तल्ख़’
मैं सब के साथ हूँ बस वो निबाह देखने को