बहुत हो चुकी शांति, क्रांति का बिगुल का बजाओ।
भिक्षा वाली वृत्ति, छोड़कर स्वयं कमाओ॥
करते सिर्फ़ प्रयोग, काम जब उनका होता।
लेकिन उसके बाद, पंगु केवल है रोता।
यदि लेना अधिकार, नींद को दूर भगाओ।
बहुत हो चुकी शांति, क्रांति का बिगुल बजाओ॥
अपंगता अभिशाप, कभी मत मानो ऐसा।
हम भी हैं इंसान, भेद फिर कहिए कैसा।
नहीं किसी से भिन्न, जहाँ को ये समझाओ।
बहुत हो चुकी शांति, क्रांति का बिगुल बजाओ॥
बैठे संसद बीच, मसखरी केवल करते।
जीते कैसे पंगु, ध्यान इसका ना धरते।
पहुँचेगी आवाज, शक्ति अपनी दिखलाओ।
बहुत हो चुकी शांति, क्रांति का बिगुल बजाओ॥