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बहुरूपिया / रंजीत वर्मा

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कभी शिव तो कभी काली
कभी हत्यारा तो कभी हनुमान
कभी बाघ तो कभी
ख़ून से लथपथ
बेतहाशा भागता कोई इंसान
कभी जोकर तो कभी मजनूँ
बहुरूपिये के हज़ार रूप होते थे
हज़ार स्वांग भरता था वह
हम उससे डरते थे
इसके बावजूद उसके पीछे दूर तक चले जाते थे
नए लोगों को उससे डरता देख हँसते थे
फिर लौट जाते थे उस जगह से
जहाँ वह अभिनय करना बन्द कर देता था

इस बीच कई साल निकल गए
उसके बारे में कुछ सुना नहीं तभी एक फ़िल्म देखी 'द लॉस्ट बहुरूपिया’
उस फ़िल्म में उसका कारुणिक अन्त दिखाया गया था
और उसका हमेशा के लिए चला जाना
बाद में कई लोगों को कहते सुना
कि वह वापस आ गया है
इस बार वह बिलकुल नई धज में है
बल्कि कहना चाहिए कि यह वो नहीं है
जो गया था किसी गहरी मानवीय त्रासदी की तरह
यह कोई और है
जो बहुरूपिया का रूप धर कर आया है
कभी यह अपने बाल सँवारता है
कभी मोम का पुतला बन जाता है
तो कभी डबडबाई आँखों और भरे गले से
कुछ बोलने का लेकिन नहीं बोल पाने का
शानदार अभिनय करता नज़र आता है

बच्चे हँस रहे हैं
चुटकुले गढ़ रहे हैं
जा रहे हैं उसके पीछे हँसी-ठिठोली करते
उस जगह से लौटने के लिए
जहाँ वह अभिनय करना बन्द कर देगा

मार्क्स ने कहा था
इतिहास जब खुद को दोहराता है तो
प्रहसन की तरह होता है
तो क्या अन्त में जब पर्दा गिरेगा
लोग ठीक उसी तरह सहमे हुए बाहर निकलेंगे
जब इतिहास पहली बार
त्रासदी की तरह घटित हो रहा था
और तानाशाहों का पर्दा एक-एक कर गिर रहा था।