बाँबी / अनूप सेठी
बैठे हुए कि लेटे हुए कि सोए हुए कि लुढ़के हुए
हे शूरवीर
लोकल ट्रेन में ब्रह्म मुहूर्त में तुम कहाँ जा रहे हो
सिर पीछे टिका हुआ है
मुखारविंद जरूरत से ज्यादा खुला हुआ है
भीतर बलगम की घरघराहट है बदबू के भभकों वाली
थोड़ी देर पहले पी चाय की चिपचिपाहट है
उसके नीचे पचे अधपचे खाने की खट्टी लुगदी
बगल में पड़ी नींद की अतृप्त इच्छा गाड़ी के हिचकोलों से ऐंठ ऐंठ जाती है
बहुत सारे कागजों के पुलिंदे हैं पसलियों में फँसे हुए
सूखी हुई सी बैंक की पासबुक
बड़ी बड़ी सी खूंखार मुहरों से बिंधे हुए
खाने को दौड़ते स्टाम्प पेपर
स्कूलों की कापियां फर्र फर्र
रह रह कर उड़ उड़ कर बैठ जाती हैं
यह कैसा विराट रूप है प्यारे
नींद में लुढ़क लुढ़क जाते हुए योध्दा
नल की टूटी हुई टूटी जैसा मुख
छाती में धंसी हुई नली पिचक गई है
ऐंटिबाइटिक्स खा खा कर खुश्की की पर्तें जमी हैं
बीयर से व्हिस्की से रम से कितना किया प्रक्षालन
छाती के फटे तंबूरे के अंदर बसा तुम्हारा घर सँसार
नीली फ्रॉक पहने चपल सी एक बच्ची जाले साफ कर रही है
उसे अपनी गुड़िया के लिए जगह बनानी है
अधेड़ सी दिखती नौजवान औरत
पत्थर पर डोसे का आटा पीस रही है
चूड़ियों की खनक से सहम सहम जाती है
भृकुटियाँ तानकर चूड़ियां कुहनी तक खींच ले जाती है
तुम कबसे यूँ ही बैठे हो
हे अवधूत
ट्रेन चली जा रही है
और तुम एक बांबी हो
मिट्टी का ढेर
सांप जिसमें लौटते नहीं
जिनकी तुम नौकरी बजाते हो
उनकी वक्र दृष्टियों ने आर पार छेद डाली है बांबी
हवा गुजरती है तो सीटी बजती है
खरीद कर लाई जिन चीजों को अब तक तुमने खाया है
उनकी प्लास्टिक की थैलियां बची हैं
कभी नहीं गलने वाली
कचरे का ढेर है
तुम्हारा लेखा जोखा है इसमें
तुम्हारी सर्विस शीट पेंशन पास बुक
वोट देने का तुम्हारा पहचान पत्र
तुम्हारी झड़ चुकी जवानी असमय घिरा बुढ़ापा
निश्चित मृत्यु
समाधि में गिरे हुए हे महात्मन्
यह सब कुछ तुम्हारी पिचकी हुई गले की नली से निकल निकल
लोकल ट्रेन के ब्रह्म मुहूर्त में
अनहद में लीन विलीन हो रहा है
और तुम नए दिन की नई पाली में जुतने से पहले
मजे की नींद ले रहे हो।
(1998)