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बाँसुरी: मोरपाँख / नंदकिशोर आचार्य
Kavita Kosh से
बुरा तो नहीं मानोगे
यदि मुझे अब
तुम्हारी बाँसुरी बने रहना
स्वीकार नहीं।
यह नहीं कि मैं उपेक्षित हुआ
बल्कि अधरों पर तुम्हारे सदा
सज्जित रहा,
किन्तु मेरा कब रहा संगीत वह
जो मेरे ही रन्ध्र-रन्ध्र से बहा ?
मुझे से तो अच्छी रही
वह मोरपाँख
जो तुम्हारे मुकुट पर चढ़ी
और न भी चढ़ती
पर जिस का सौन्दर्य
उस का अपना था।
यह अन्तर क्या कम है
कि तुम्हारा संगीत
मेरी विवशता है
और मोरपाँख का सौन्दर्य
तुम्हारी ?
बुरा न मानना
कि अब मैं
तुम्हारी बाँसुरी नहीं रहा
(1967)