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बाँसुरी में फूल आ गए / मधुरिमा सिंह
Kavita Kosh से
काठ की थी नाव मेरी देह, नेह के दुकूल आ गए
होंठ से छुआ जो श्याम ने, बाँसुरी में फूल आ गए
स्वप्न कुछ ज़रूर लुट गए, पर हमारी आँख खुल गई
साधना की सिद्ध साँस में , तेरी दिव्य गंध घुल गई
ज्ञानियों को कब मिला है वो, प्रेम से ख़रीदे रुकमनी
सिर्फ एक तुलसी - पात से, देह श्याम की थी तुल गई
प्रेम जब भी देह से जुड़ा, वासना के शूल आ गए
मुट्ठियों की रेत - सी तुली, कामना को प्राण मिल गया
किस नदी की तेज़ धार में, तन शिलाओं का भी छिल गया
तन तो जलकर राख हो गया, मन की आग देर तक जली
जानकी का धैर्य देखकर, दिल धरा का भी था छिल गया
गीत के सुरीले कंठ में, दर्द के बबूल आ गए