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बाँसुरी / स्वप्निल श्रीवास्तव
Kavita Kosh से
मैं बाँस का एक टुकड़ा था
तुमने मुझे यातना दे कर
बाँसुरी बनाया
मैं तुम्हारे आनन्द के लिए
बजता रहा
फिर रख दिया जाता रहा
घर के अन्धेरे कोने में
जब तुम्हें ख़ुश होना होता था
तुम मुझे बजाते थे
मेरे रोम-रोम में पिघलती थीं
तुम्हारी साँसें
मैं दर्द से भर जाया करता था
तुमने मुझे बाँस के कोठ से
अलग किया
अपने ओठों से लगाया
मैं इस पीड़ा को भूल गया कि
मेरे अन्दर कितने छेद हैं
मैं तुम्हारे अकेलेपन की बाँसुरी हूँ
तुम नहीं बजाते हो तो भी
मैं आदतन बज जाया करता हूँ।