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बाँह फैलाए खड़े, निरुपाय / किशन सरोज

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बाँह फैलाए खड़े, निरुपाय, तट के वृक्ष हम
ओ नदी ! दो चार पल, ठहरो हमारे पास भी ।

चान्द को छाती लगा —
फिर सो गया नीलाभ जल
जागता मन के अन्धेरों में —
घिरा निर्जन महल

और इस निर्जन महल के एक सूने कक्ष हम
ओ चमकते जुगनुओ ! उतरो हमारे पास भी ।

मोह में आकाश के —
हम जुड़ न पाए नीड़ से
ले न पाए हम प्रशंसा-पत्र —
कोई भीड़ से

अश्रु की उजड़ी सभा के, अनसुने अध्यक्ष हम
ओ कमल की पंखुरी ! बिखरो हमारे पास भी ।

लेखनी को हम बनाएँ
गीतवन्ती बांसुरी
ढूँढ़ते परमाणुओं की —
धुन्ध में अलकापुरी

अग्नि-घाटी में भटकते, एक शापित यक्ष हम
ओ जलदकेशा प्रिया ! संवरो हमारे पास भी ।