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बांसुरी / राकेश खंडेलवाल

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मन हो घनश्याम करता प्रतीक्षा रहा
आप राधा बने जब इधर आएंगे
जिंदगी की मेरी बांसुरी के स्वरों पर
नये गीत खुद ही संवर जाएंगे
रात भर थे सितारे जले, आपको
साथ ले आएंगी रश्मियां भोर की
आस्था का सिरा थाम कर हर घड़ी
थी सुलगती रही आस की डोर भी
पर न आई उषा, बादलों में छुपे,
सूर्य् ने घर के बाहर न भेजा उसे
और फिर रह गए स्वप्न बिखरे हुए
घोर तन्हाई के विषधरों से डंसे
एक दीपक खड़ा सांझ के द्वार पर
जुगनुओं को शिखा पर सजाए हुए
सोचते, आपके दृष्ट-स्पर्श से
फूल बन ये गगन में बिखर जाएंगे

हाथ की धुंध रेखाओं में ढूंढ़ते
उम्र गुज़री़ न किस्मत की कोई मिली
भाग्य ने द्वार खोला नहीं कोई भी
दस्तकें देते दोनों हथेली छिली
लग रहा कोई आसेब का चक्र सा
गिर्द् मेरे निरंतर है चलता हुआ
वक्त के ज्योतिषी ने कहा, आपके
आगमन से ही सुधरेगी यह ग्रहदशा
आज उत्सुक पलों को नयन में, मेरी
पंथ, पगडंडियां हैं निहारा करीं
पाके सिकता के कण आपके पांव से
रंग साधों के सिंदूर हो जाएंगे

सोचता हूं कि मनुहार जो कर रहा
शीघ्र् ही वे, फलीभूत हो जाएंगी
आप ही पालकी के सिरे से बंधी
वाटिका में बहारें चली आएंगी
रेशमी कल्पनाओं की अंगड़ाइयां
नभ को छूने लगेंगी उठा हाथ को
तुष्ट हो जाएंगे प्यास के पल सभी
जो तरसते रहे आपके साथ को
फूल की पांखुरी़ अंजुरी में मेरी
आपके छू अधर जब चली आएगी
देवताओं के आशीष तब राह पर मेरी
आ चांदनी जैसे बिछ जाएंगे