दिल्ली मैं इधर साल में
कम से कम तीन चार बार तो
आता ही आता हूॅ
दिल्ली कभी मुझे
दिल्ली जैसी नहीं दिखी,
न कभी उसका तख़्त-ए-ताउस दिखा
न कोई तख़्त-ए-ताउस में दिखा
आते-जाते औलिया की मज़ार
तो ज़रूर दिखी
पर कभी कोई औलिया नहीं दिखा,
पहले की तरह इस बार भी
बेमन से
बेदिल से गया था दिल्ली
पहले की तरह ही
सारी चीज़ें दिखी
कुछ स्टेशन के बाहर
कुछ स्टेशन के भीतर दिखी
आटो वाले भागते-दौड़ते
सबको साहब-साहब कहते
पचास की जगह सौ टीपते दिखे,
लाल कुर्ती पल्टन जैसे
कुली दिखे
पहले की तरह
कभी फटकारते अपनें अंगोछे
कभी उसे बाँध कर
साधते सर का बोझ
एक के उपर एक धरते
पनिहारिन के घड़ों की तरह
वैसे ही हचक-हचक
चलते लहराते दिखे,
पहले की तरह तो नहीं
पहले से कहीं ज़्यादा दिखी बेख़ौफ़
तेज़-तेज़ चलती लडकियाँ
विश्वास से भरी और
विश्वास भरती हुई दिखी
जहाँ गया था मैं वह तो वहीं था
पर पहले जैसा नहीं था
मशींनें ज़्यादा थीं
पर आदमी कम दिखे
मशीनें आदमी नहीं होतीं
आदमी मशीन नहीं होते
जिसे दिल्ली कभी मानने को
तैयार होती नहीं दिखी
तैयार कैसे होती
वह तो दिल्ली थी
जहाँ मैं गया था
वह दिल्ली नहीं थी,
वह अस्पताल था
बड़ा सा हाल था
जहाँ बेहाल आदमी भरे थे
बेहाल आदमी के हाल
बेहाल आदमी ले रहा था
यह देख कर मुझे अच्छा लगा कि
कहीं तो आदमी
आदमी जैसा लग रहा है
बाक़ी तो यह दिल्ली है
जब भी खिसयाती है
खम्भे की जगह
आदमी को ही नोचती है,
दिल्ली तो नहीं लेकिन
पहले से कुछ रमणिका जी
ठीक-ठाक दिखीं
पहले से कुछ ज्यादा जगह दिखी
पहले से कुछ ज्यादा ठीक-ठाक
जम कर बैठी विपिन चौधरी दिखीं
आने वाले मुझ जैसे अभ्यागती
ही-ही ठी-ठी करते दिखे ,
दिल्ली में जो इस बार दिखा
वह इसके पहले
कभी नहीं दिखा
जो दिखा वह कहीं से
नहीं दिख रहा था कि वह दिल्ली है
जो मुझे अब तक कहीं नहीं मिला था
वह मुझे दिल्ली में मिल रहा था
आँखें जो बरसों से चाहती थी
वह यहाँ हिल रहा था
हिला रहा था
हिला कर मेरे भीतर मिल रहा था,
मुझे उम्मीद नहीं थी कि
कभी दिल्ली इतना सब मुझे
इकबारगी दे देगी
जिसे मेरा दामन
जो दामन कभी नहीं रहा
जो था वह बस मुझे ही ढकता था
ढकने से दामन के लिए
कहाँ कुछ बचता था
मैं दिल्ली में था
ताज्जुब था कि
बिना दामन का था
जिसका मुझे मान था
गुमान था ।