बाकी बची उम्र / हरकीरत हीर
हर रोज घटती हैं रेखाएँ
उम्र के साथ-साथ
एक जगह से उठाकर
रख दी जाती हैं दूसरी जगह
बार-बार दोहराये जाते हैं शब्द,
तारीखें बदल जाती हैं
दर्द थपथपा कर देता है तसल्ली
पार कर लिया है उम्र का
एक पड़ाव
बंधे हुए गट्ठरों में
अब कुछ नहीं बचा बिखर जाने को
तुम चाहो तो रख सकते हो
मेरी चुप्पी के कुछ शब्द
छटपटाते हुए
ओस की बूंदों में लिपटे
उतर आयेंगे तुम्हारी हथेलियों पर
रात की बेचैनियों का खालीपन
दर्द की लहरों के संग
खड़ा मिलेगा तुम्हें
अकेला और बेचैन
तुम्हें यकीं कैसे दिलाऊँ
बेशक सांसें अभी ज़िंदा हैं
पर खुशियों की एक भी उम्र
बाकी नहीं है इनमें
जीने की कोशिश में आँखों की रेत
बहती जा रही है कोरों से
आओ
आज की रात ले जाओ
बांह पकड़कर
फ़िक्र के पानियों से दूर
बादलों इक टुकड़ा ढूँढता हुआ
आया है तुम्हारे पास
आओ कि अब
उदासियों में बाकी बची उम्र
सुकून की तलाश में
कब्रें खोदने लगी है…!!