बाकी बची जो मैं / नंद भारद्वाज
जब से होने का होश संभाला है,
अपने को इसी धूसर बियाबान में
जीने की जिद में ढाला है!
बरसों पहले
जिस थकी हुई कोख में
आकार लिया था मैंने
नाभि-नाल से निर्बंध हुई थी देह,
कहते हैं, मां की डूबती आंखों में
फकत् कुछ आंसू थे
और पिता की अधबुझी दीठ में
गहराता सूनापन,
सिर्फ दाई के अभ्यास में बची थी
एक हल्की-सी हुलसती उम्मीद
कि जी लेगी अपना जोखिम
और बदहवासी में बजते बासन
जचगी की घुटती रुलाई पर
देर तक बजते रहे थे
गांव के गुमसुम आकाश में!
दिनों जैसे दिन थे
और रातों जैसी रात
जीवन का क्या है
वह तो गुजार ही लेता है
अपनी राह -
जो मिला सो गह लिया
कौन जाने कहां हो गई चूक
उल्टा-सीधा जो हुआ बरताव
बेमन सह लिया,
जैसा भी बना-बिखरा-सा घर था अपना
उसी को साधा सहेजा
गांव-गली की चर्चाओं से रही सदा बेसूद
अपने होने के कोसनों को नहीं लिया मन पर
गिरते-सम्हलते हर सूरत में
अपना आपा साध लिया!
गांव-डगर में
कहीं नहीं थी मोल-मजूरी
कहीं नहीं था कोई अपना बल
मंझला भाई बरसों पहले
निकल गया परदेस
और नहीं लौट पाया
सलामत देस में।
बाकी बची जो मैं
इसी दशा के द्वार
मात-पिता पर जाने कब तक
रखती अपना बोझ
बस उलट-पलट कर देख–समझ ली दुनिया
उनकी टूटन, उनके सपने - उनका बिखरापन
और जान लिया है
ताप बदलता अपना अंतर्मन.