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बाकी बचे लोग / पृथ्वी: एक प्रेम-कविता / वीरेंद्र गोयल

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(मंजीत बावा की एक पेंटिंग पर)

कुछ लोग हवा में लटके हैं
कुछ धरा पर,
कुछ अधर में नाच रहे हैं
कुछ बैलों की भाँति कर रहे कोशिश
उठाने को धरा, सींगों पर
कुछ अश्वों की भाँति
राैंद देना चाहते हैं धरा
ढक देना चाहते हैं
सौर-मंडल की धूल से
कुछ लोग तलवार नचा रहे हैं
कुछ हवा में तीर चला रहे हैं
लेकिन विदूषक अपने सर्वश्रेष्ठ प्रदर्शन में
वोट क्लब पर सर्कस लगाकर बैठा है
उकता गए हैं निर्लिप्त व्यक्ति
हर बार वही कलाबाजियाँ देखकर
बार-बार पुकारने पर भी
फुरसत नहीं किसी को देखने की
विदूषक लेकिन उन्हें बार-बार बुला रहा है
दर्शक न होने के बावजूद
खेल दिखा रहा है।