भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
बागवानी हो रही / प्रेमलता त्रिपाठी
Kavita Kosh से
बह रहीं कैसी हवाएँ बागवानी हो रही।
प्रश्न उठते अब नयन बेटी सयानी हो रही।
खिल सका उपवन हमारा, बेटियों के मान से,
हाँ बचाया कोख हमने पर अमानी हो रही।
आँधियों को दोष क्या दें घर हमारे ढह गये,
ढह गया आदर्श जब बेटी बचानी हो रही।
धर्म के आलय जहाँ उठतीं हया की बोलियाँ
रो रही क्यों अस्मिता खो आज पानी हो रही।
दिन उजाले को बनाते हैं अमावस क्यों घना,
रात की छाया डराती-सी जवानी हो रही।
खोल दी हमने किताबें आज करुणा प्रेम की,
छल प्रपंचों की कथा सुननी सुनानी हो रही।