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बाघ-बकरी / कौशल किशोर

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वे चुस्कियों का आनन्द लेते हैं
पीते हैं चाय-
'बाघ-बकरी'

इसे पीकर वे क्या बनना चाहते हैं
बाघ?
या
बकरी?

बाघ बने तो होंगे आदमखोर
जाना होगा जंगल में
करना होगा शिकार
वहाँ गूंजेगी बाघ के डुकरने की आवाज
सारा जंगल आ जाएगा दहशत में
वे खलेंगे दबंगई का खेल
भागने और दबोचने का खेल
हड्डी और मज्जा से निचोड़ेंगे मांस
करेंगे रक्तपान

बकरी हुए तो होंगे दास
सारी ज़िन्दगी बंधना होगा दूसरे के खूंटे से
फंसरी की तरह गले में पड़ी होगी रस्सी
में...में...में...में...
मिमियाती, रिरियाती, घुटी-धुटी आवाज
वह देगा थोड़ी-सी घास
रुखे-सूखे पत्ते
और चाहेगा पूरा दूध
और कभी घर जा जाय कोई मेहमान
या आ जाय अपना ही मन
दावत में परोसा जाएगा
हड्डियों से चिचोड़ते हुए मांस
बड़े चाव से खा रहे होंगे सब
स्वादिष्ट व्यंजन

यह कितना खूबसूरत भ्रम है
इस बाज़ार का
जो दे रहा है कई-कई विकल्प
ख्याल किसिम-किसिम के
क्या गजब का अहसास कि
आपको पीनी है चाय
कड़क मसालेदार
पर बनना या होना है
बकरी या बाघ!