भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

बाज़ार में आलोचक / मुकेश मानस

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज


एक

सिर पर लगाये टोपी
और चेहरे पर एक कुटिल मुस्कान लिये
नमस्कार के अंदाज में
अपनी नज़रों को गिराता-उठाता हुआ
पुस्तक मेले में घूम रहा था
हिन्दी का एक नामावर आलोचक

उसके पीछे थी एक कतार
गर्दन झुकाये और श्रद्धानत
कवियों और लेखकों की
जिनको उसने बिकाऊ बना दिया था
हिन्दी जनता के बीच

उसे कर रहे थे सलाम
प्रकाशक झुक-झुक कर
जिनकी छापी हुई किताबें
उसकी लिखी हुई भूमिका के साथ
बाज़ार में भारी मुनाफ़ा कमा रही थीं

पुस्तक मेले में अपना माथा उठाये
किसी बादशाह की तरह
अपने साम्राज्य का निरीक्षण करता
हिन्दी का एक नामावर आलोचक


दो

उसके इशारे पर उठते हैं कवि
उसके इशारे पर गिरते हैं कवि
उसके इशारे पर होते हैं
कविगण स्वीकार-अस्वीकार
किसी को मिलती है धूल
कोई पाता है पुरस्कार


तीन

वह लेखक गुट को पह्चान कर
आयोजकों की औकात नापकर
माहौल की हवा सूँघकर
समय की धार जानकर
चंद शब्द उच्चारता है
वह अपने शब्दों की कीमत पह्चानता है


चार

जिस टोपी को पहनकर
वह किसी बादशाह सा दिखता है
उसी टोपी को उतारकर
और अपने हाथों में कटोरे सा रखकर
किसी बिरला या टाटा के दरबार में
भिखारी हो जाता है
और हिन्दी का एक नामावर आलोचक
दरियागंज के भिखारियों की पाँत में खो जाता है
2000