बाज़ार में बुद्धिजीवी / सुभाष राय
कभी-कभी वह
पूरा घर उलट-पुलट डालती हैं
बिखरा देती हैं सारा सामान
कपड़े, डिब्बे, आलमारियां सब
फिर समेटती हैं सबको
तरतीब देती हुई
हर हिस्से को थोड़ी-थोड़ी
अपने भीतर की ख़ूबसूरती
सौंपती हुई
करीने से सजी हुई क़िताबें
एक तस्वीर जैसी लगती हैं मुझे
डर लगता है, एक क़िताब भी खींची तो
बिगड़ जायेगी पूरी पेंटिंग
खीझ होती है तब
मन करता है कह दूँ
मुझे भी सजा दो किसी कोने में
ताकि जब चाहो, मिलूँ
वैसे ही, जैसे रखा था कभी
जब चाहो निकाल लो मुझे
बातें करो और फिर वहीं सजा दो
जब चीज़ें बहुत तरतीब में होती हैं
चमकती हुई, जगमग-जगमग
लगता है वे बिकने को तैयार हैं
इसीलिए जब कभी बाज़ार में होता हूं
चमक उठता है मेरे भीतर तक अन्धेरा
यहाँ सब कुछ बिकाऊ है
तेल, साबुन, कम्प्यूटर या कपड़े
आदमी या औरतें भी
कुछ बुद्धिजीवी भी खड़े हैं
अपनी बोली के इन्तज़ार में
बताते हुए अपनी ख़ासियतें
यह कि दूसरों ने उनके बारे में क्या लिखा है
यह कि उनकी कितनी क़िताबें प्रकाशित हैं
यह कि कितने तमगे हैं उनके पास
यह कि कितने स्तम्भ लिखते हैं वे
यह कि कितने इण्टरव्यू कराए हैं अपने
यह कि कितने रिव्यू छपवाए हैं अपनी क़िताबों के
वे जानते हैं कि प्रचार से क़ीमत बढ़ जाती है
उनके पास अपने समय के कुछ
बड़े लोगों के साथ अपनी तस्वीरें हैं
उन्होंने कुछ फिदायीन मित्र बनाए हैं
सब मिलकर एक-दूसरे के बारे में
बोलते हैं, लिखते हैं, एक-दूसरे को कोट करते हैं ।
वे अपनी लड़ाइयों के बारे में
बार-बार बताते हैं
और चमक उठते हैं
अपने अतीत में झाँकते हुए
बड़े निस्पृह भाव से बताते हैं
कैसे पेट काटकर बना पाए
घर, प्लॉट और चौपहिया
एक योद्धा को क्या चाहिए
बहुत है इतना, बहुत ज़्यादा
वे गीत गाते हैं सँघर्ष के
किसान, मज़दूर और ग़रीब की मुक्ति के
पूरी ज़िन्दगी ऐसे ही गुजार दी
अपने बारे में सोचा ही नहीं
अनायास, अनाहूत जो मिल गया
बहुत है, बहुत ज़्यादा
ऐसे बहुत लोग हैं यहाँ
बेचते हुए, बिकते हुए
यहाँ खड़ा होने में डर लगता है
कोई अपना ही किसी कोने में
सजाकर रख न दे
सीने पर क़ीमत न लिख दे
चुपचाप बेच न दे ।