भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
बाज़ार से गुज़रते हुए / मुकेश मानस
Kavita Kosh से
बाज़ार से गुजरते हुए
घिर रही है सारी धरती
सामान के अंबार से
दुकानों में बदल रहे हैं घर
बाजार बन रही है दुनिया
अब कहां रहेंगे वो लोग
जो भरे हैं
इंसानियत और प्यार से
1997