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बाज़ार / प्रगति गुप्ता

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झूठी प्रशंसाओं से भरे हुए मुख,
आज खुले बाज़ार हुए...
नयन भावविहीन और
लोग पूरी की पूरी दुकान हुए...
चाहतें आगे बढ़ने की
कुछ इस क़दर हावी हुई
सिर्फ बातों की जमाख़र्ची कर
सारी सौदेबाज़ियाँ हुई...
और भ्रम आगे बढ़ने के
दिखावों के झंडों के तले
फ़ेराये और दिखाए गए...
यहाँ सब बढ़ता हुआ दिखा
पर अंदर ही अंदर के इंसान
गिर गिरकर गर्त में लहूलुहान होते रहे...
बड़े शहर, बड़े मकान और
धन-दौलत को अहम बना,
सारी बिसातों और पासों को
ढीठ बन खेल खेलकर,
जेबों में समेटते रहे...
दुकान में सजी वस्तुओं के जैसा
हँसने और मुस्कुराने का
मोलभाव तोल तोलकर
तुलाओं पर है आज हुआ...
जो बाज़ार कभी
शहर के एक कोने में
सिमटा-सिमटा, गन्द समेटे रहता था,
हो बेशक़ आँखों में आँसू
पर चुपचाप सिसकता था,
पहले बाज़ार बनना किसी की
मजबूरियाँ हुआ करती थी,
आज हवस अधिक से अधिक
धन संपदा, सम्मान बटोरने की
ख़ुद को दुकान और बाज़ार बना
अनर्गल शब्दों की जमाख़र्ची कर
इंसानियत गवां बैठी ...
यहाँ अब है नहीं आँखों में पानी
न दिलों में धड़कन,
फेंक रहे लोग सिर्फ़ शब्दों के पासे
बन बैठे ख़ुद ही सारा बाज़ार और
चला रहे है अपनी-अपनी दुकानें...