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बाज़ार / रचना दीक्षित
Kavita Kosh से
आज इतवार की सुबह
जाग उठी हूँ
रेहड़ी वालों के अजीब शोर से
सालों से अदृश्य आत्माहीन शरीर
आज अचानक दृश्यमान हुए हैं
अलग तरह की रेहडियां
अलग सामान
कहीं समाजवाद,कहीं लोकतंत्र
कहीं धर्मनिरपेक्षता, कहीं केवल धर्म
बदले बदले स्वर
कहाँ जाऊँ, क्या लाऊँ?
जहाँ सब सस्ता है?
या जहाँ सब अच्छा है
जहाँ गुणवत्ता है
या जहाँ महत्ता है
या जहाँ मिले पाँच साल की गारंटी व वारंटी
पर यहाँ तो ये ही खुद असमंजस में है
ये ही नहीं जानते
कब हाथ मसल दिया जायेगा
कब कमल कुम्हला जायेगा
कब हाथी हताश हो हांफता बैठ जायेगा
या फिर
कब ये सुकोमल हाथ
अपनेपन से, दुलार से
तोड़ेगा कमल
संजोयेगा हाथी की सूंढ में इसे प्यार से
और अर्पित करेगा
माँ लक्ष्मी के चरणों में
कौन जाने