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बाज़ूबन्ध की कविता-1 / एकराम अली
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ऐसी अस्थायी नीली रोशनी
जलती, बुझती, फिर जलती
तो फिर किसने बुझा दी
कोहरा, स्टीमर, धुँधली-सी तन्द्रा
तैर रही है मछुआरे की नाव
बासी गहने, बासी आँखें
ज़र्द-ज़र्द है तारे
ऐसा आसमान
जिसके ख़ालीपन में
दो परिन्दों की चीख़ें हैं,
ऐसा जंगल जिसका अन्धेरा
कँपता है अविश्वास में,
ऐसा सोना जिसमें
रात भर नींद नहीं आती
इकट्ठा किए पत्थरों के टुकड़ों को
वह रात भर निशाना साध
फेंकता रहा नींद की ओर
स्नानघर, बासी आइने, दाग़-दाग़ प्रतिहिंसा, स्मृति
पानी की अतल थाह में
पाना चाहते हैं पाताल का एहसास
मूल बँगला से अनुवाद : उत्पल बैनर्जी