भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
बाज़ूबन्ध की कविता-2 / एकराम अली
Kavita Kosh से
आकाश अवनत-नील
ऊँचा-नीचा रास्ता
घासों में मकड़ियों के जालों को हटाकर
इस राह से
उसका आखि़री बार की तरह जाना
उस घास की ओस में
विष ढला है
युद्ध, आसक्ति, रुलाई
और अविराम बहस
बन्द कमरे में झुलस-झुलस कर
क्षीण हो गए हैं चारों प्रहर
अब खुले हुए हैं कपाट -- अब कुछ नहीं बचा
ख़त्म हो गई हैं सारी बातें, चर्चाएँ
अब बाज़ूबन्ध अकेला है -- इतना अकेला कि
उसका भीतरी सोना
हिंसक हो उठता है
मूल बँगला से अनुवाद : उत्पल बैनर्जी