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बाज़ूबन्ध की कविता-4 / एकराम अली

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फुंसी हुई है
उसकी तकलीफ़ आँचलिक रूप से
व्याप गई है देह में
समग्र अंचल में नहीं
एक छोटे-से हिस्से में

हालाँकि नक्षत्रों की देह पर
समग्र ताप से
विकारजन्य नीली फुंसियाँ
स्वभावतः जनमती हैं

यह देह तारे का अंश है -- कृत्तिका, कृत्तिका!

नानाविध नैसर्गिक धातुओं के क्षरण से
जलती है अग्निशिखा

तारों को देखो
देखो और ढूँढ़ो कि नए में तुम कौन-से हो
घावों और तकलीफ़ों को दबाकर
बचे रहने की नवीनतर निपुणता

मूल बँगला से अनुवाद : उत्पल बैनर्जी