बाज़ नहीं आई / मल्लिका अमर शेख़ / सुनीता डागा
मैं जब पेड़ थी तब की यह बात है
जड़ें ज़मीन के गहरे भीतर
दबी हुई थीं — आश्वस्त-सी
लहलहाती हरी टहनियों पर पंछी विचरते थे उन्मुक्त
आसमान के बादल कन्धों पर अपना माथा घिसते हुए
मुस्कुराते रहते थे
नन्हे-कोमल जीव चहचहाते हुए फुदकते रहते
और जब एक दिन बनाना था उन्हें पुल
काट डाला उन्होंने मुझे
फिर मैं औरत बनी
जल्दी-जल्दी घर बुहारती
खाना पकाती हुई
भाग-दौड़ करती बच्चों को सँभालती
पति को सहती हुई
दुबारा मार डाला उन्होंने मुझे
तब मैं पानी बन गई फिर पहाड़ बनी फिर मिट्टी
बार-बार वे मुझे मार-काट कर ख़त्म करते रहे
बार-बार मैं जन्म लेती रही
उन्हें मुझे ख़त्म करने की आदत-सी हो गई
और पुनः पुनः जन्म लेने की मेरी आदत से
मैं मरती गई
पर
बाज़ नहीं आई !
मूल मराठी से अनुवाद : सुनीता डागा