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बाजार में स्त्री / बाजार में स्त्री / वीरेंद्र गोयल

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अनजाने ही
असहज हो जाती हैं स्त्रियाँ
घूरतीं नजरों के प्रति
बिना देखे
छुपाने लगती हैं खुद को
सिकोड़ लेती हैं अपने-आपको
देह के प्रति इतनी संवेदनशीलता
और विद्रोह देह से ही
देह एक स्त्री
या स्त्री एक देह
बाजार सोने नहीं देता
उसे तुम्हारे बाल चमकाने हैं
उसे तुम्हें गोरा बनाना है
उसे तुम्हें फैशन की,
पैशन की
ऊँचाइयों तक पहुँचाना है
एक आदर्श माँ,
एक आदर्श पत्नी,
एक आदर्श बहू,
इस बाजार में तुम्हारा वजूद कहाँ है?
कहाँ हैं तुम्हारी संवेननाएँ?
तुम्हारी खुद्दारी?
एक ग्राहक से ज्यादा और क्या
तुम बस इसे ही आजादी समझती हो
देह से हो जाओ विदेह
तभी मुक्त हो पाओगी
बाजार से,
व्यापार से,
प्यार से,
वर्ना तो
सब तुम्हारी देह सँवारते रहंेगे
एक आदर्श स्त्री ढाँचे में ढालते रहेंगे।