बाजार / ब्रजेश कृष्ण
कई दिनों बाद आज मौसम खुला था
मेरे पास समय
और बारिश होने का डर-दोनों थे
इसलिए मैंने तय किया
कि आज मैं बाजार जाऊंगा
और अपना छाता ठीक कराऊंगा।
बाजार में सामान से लदी दुकानें थीं
भीड़ थी और
खुली अर्थव्यवस्था की हवा में
खरीदने की हड़बड़ी थी।
मैंने देखा वे सभी ठिकाने जहां
कभी बैठते थे
छाता सुधारने वाले
और हैरत से पाया
कि वे सब के सब
गायब थे बाजार से।
ये कैसे हो सकता है?
मैंने पूछा खुद से
क्या इस शहर में
अब छाते नहीं सुधरते
क्या कोई सरकार
बना सकती है ऐसा कानून
कि चाहे जैसी हो बारिश
ओले या तूफान
कैसा भी हो कहर
लोगों के छाते
नहीं सुधारे जाएंगे शहर में।
मैं इस सवाल से
रूबरू हो रहा था बाजार में खड़ा हुआ
कि एक भव्य दुकान से
युवा लड़का कीमती और शानदार
और नए जूते पहनकर निकला
और रौंदता चला गया
मेरे सवाल को।
मैं एक अच्छे नागरिक की तरह
मरते हुए सवाल को वहीं छोड़
घुस गया एक सजी हुई दुकान में
यह सोचकर
कि खरीद ही लेता हूं
एक नया छाता
और घर जाकर पीता हूं चाय।
दुकान इतनी बड़ी थी
कि खुद एक बाजार थी
सजे-धजे तमाम लोग वहां थे
मगर वे नहीं खरीद रहे थे चीजें
वे वहां से खरीद ही रहे थे
अपने पड़ोसी की जलन
अपने घर की शान।
अपने परिवार का सुरक्षा-चक्र
और अपने अति
विशिष्ट होने की सनद
ऐसे में मुझे
एक टिकाऊ छाते की मांग
अशिष्टता लगी
और मैं नीचे उतर आया दुकान से।
मैं बाजार के मुख्य चौराहे की ओर गया
वहां कोने में बैठा था
एक दातुन बेचने वाला
बाजार के परिदृश्य में
मैंने उसे अचरज से देखा
और सोचा कि जो भी अब आएगा
इसका ग्राहक उससे
हाथ मिलाकर घर जाऊंगा।
मैं घंटे भर से ज्यादा घूमता रहा वहां
मगर नहीं आया कोई ग्राहक
इससे पहले कि वह अपनी दुकान समेटता
मैंने उससे खरीदी कुछ दातुनें
खुद से हाथ मिलाया
और घर आया।
दरअसल मैं कतराता हूं
अक्सर बाजार जाने से
क्योंकि खरीदकर लाई चीजों के साथ
घर में घुस जाता है
ठगे जाने का एहसास,
मगर इस बार
नहीं घुस सका घर में
यह बेतुका भाव
क्योंकि ठीक उसी समय
खुश था मैं यह सोचते हुए
कि अगर कल हुई बारिश
तो तान लूंगा मैं दातुन को
छाते की जगह।