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बाड़ ही खेत को जब खा गयी धीरे-धीरे / आनंद कुमार द्विवेदी
Kavita Kosh से
दिले पुरखूं कि सदा छा गयी धीरे धीरे
रूह तक सोज़े अलम आ गयी धीरे धीरे ।
मैंने सावन से मोहब्बत कि बात क्या सोंची
मेरी आँखों में घटा छा गयी धीरे धीरे ।
जश्ने आज़ादी मनाऊं मैं कौन मुंह लेकर
बाड़ ही खेत को जब खा गयी धीरे धीरे ।
जो इंकलाब से कम बात नहीं करता था
रास उसको भी दुल्हन आ गयी धीरे धीरे ।
दोस्त मेरे सभी नासेह बन गए जबसे
बात रंगनी मुझे भी आ गयी धीरे धीरे ।
गाँव के लोग भी शहरों की तरह मिलते हैं
ये तरक्की वहाँ भी आ गयी धीरे धीरे ।
लाख ‘आनंद’ को समझाया, बात न मानी
खुद ही भुगता तो अकल आ गयी धीरे धीरे |
शब्दार्थ :-
दिले पुरखूं = ज़ख्मी दिल (खून से भरा हुआ दिल)
सदा = आवाज़
सोज़े अलम = दर्द की आग़
नासेह = उपदेशक