बाढ़ की विभीषिका का नृत्य चल रहा,
लूट-पाट का बाजार गर्म हो रहा।
कविता न लिखता, न गीत गा रहा,
मानव-पतन का इजहार कर रहा।
रोती हैं आँखें, दिल भी जल रहा,
लूट-पाट का बाजार गर्म हो रहा।
बह गये हैं घर-द्वार, खेत बह गया,
माता-पिता से पुत्र दूर रह गया।
मिलने चले तो उपाय न रहा,
जान-माल लेने का घात चल रहा।
रेलगाड़ी चलना तो बन्द हो गया,
बस के लिए भी न मार्ग रह गया।
चढ़कर भी नाव पर न धैर्य रहा,
नाव पर ही नर का संहार चल रहा।
वृक्ष पर, सड़क पर, छत पर हैं रह रहे,
भूख-प्यास से विकल हैं अश्रु गिर रहे।
मनु-पुत्र ऐसे बेहाल हो रहा,
आँखों के सम्मुख सर्वस्व दह रहा।
दृष्टि जहाँ जाती जल ही है दिखाता,
घोर प्रलय को ही है याद दिलाता।
बर्बादियों का है योग मिल रहा,
ऐसा कठोर करा रेत चल रहा।
राहत-शिविर तो अनेक चल रहे,
फिर भी निराश मनुज हाथ मल रहे।
तिनके का भी न सहारा है मिल रहा,
मरने को मानव लाचार हो रहा।
मर गये जो उनकी तो चीज लुट रही,
जिनें की जान भी सहज ही जा रही।
मानव की आँखों में न पानी रहा,
दानव से बढ़कर व्यवहार कर रहा।
क्या करे सरकार और नेता यहाँ,
मानव न मानव हैं रह गये जहाँ।
नैतिक पतन का व्यापार चल रहा,
रक्षक ही भक्षक का काम कर रहा।
बाढ़ की विभीषिका का नृत्य चल रहा,
लूट-पाट का बाजार गर्म हो रहा।
-समर्था,
25.8.1987 ई.