बाढ़ के दिनों में सरकार के बन्दों से / मनोज कुमार झा
क्या तुम्हें शर्म नहीं आती !
क्या तुमने दूध के लिए रोते बच्चों को देखा है ?
अपनी माँ से पूछ लो
नहीं, तुमसे छूट गई होगी वो भाषा
जिसमें माँओं से बात की जाती है
क्या तुमने तेजाब की शीशी को
बच्चों की पहुँच से दूर किया है कभी ?
अपनी पत्नी से पूछ लो
नहीं, तुम्हारे पास वो वीणा कहाँ जिसपर
बच्चों के हित बढ़ रहे स्त्रियों के हाथ बजते हैं ।
तुमने परमाणु-बम बनाया
चाँद को छुआ
वह दस दिन का बच्चा डूब रहा पानी में
वो काग़ज़ का टुकड़ा नहीं जिसे तुम फेंक देते हो बिना दस्तख़त के
शिश-शरीर वह बसती है जिसमें सभ्यता की सुगन्ध
तुम इस दस दिन के बच्चे को नहीं बचा सकते
तुम्हें शर्म नहीं आती !
तुम्हें नींद आती है !
अब तो मुझे शर्म अपने पुरखों पर कि उन्होंने नींद तक राहें बनाईं
मुझे शर्म है अपनी नींद पर भी
कि जिससे तेरा रिश्ता उससे मेरा भी