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बाढ़ नहीं यह... / राजेन्द्र गौतम
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कल बस्ती थी
आज ताल है ।
बूढ़ी माँ
टूटी खटिया को
मुश्किल छत तक ठेला
लोटा-थाली-आटा-दालें
संग गया ले रेला
जल है यह
या एक जाल है ।
सोना तो
मेरी गोदी थी
रूपा कौन संभाले
धनिया को तो लील गए थे
आसपास के नाले
बाढ़ नहीं यह
महाकाल है ।
बेघर तो
पहले से ही थे
अब छूटा फुटपाथ
पा लेंगे क्या सभी निवाले
जितने पसरे हाथ
डालों पर भी
कहाँ छाल है ।
कौन उठाएगा
छिगुनी पर
अब के यह गोवर्धन
इनका तो खुद ही संकट में
रहता है सिंहासन
इन्द्रासन की
तुरुप-चाल है ।