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बाढ़ / चन्द्रकान्त देवताले
Kavita Kosh से
दोनों बच्चियाँ सो रही हैं
छोटी मेज़ में ओठों के कोने पर हँसती हुई
बड़ी बडबडाती-
पापा बाहर मत जाना
मत जाने दो-पापा को उधर...
बाहर
हवा के पेट में
पानी बज रहा है,
पानी हवा के कन्धों पर
चढ़ रहा है,
मेरा मष्तिष्क तुम्बी की तरह
पानी में हिचकोले खा रहा है...
तुम सोच को उतार कर फेंक दो
साड़ी की तरह-
तुम भय को कद्दू की तरह
दचीक कर
फोड़ दो और
बताओ हँसकर
मंझरात
फोड़ दो पेट हवा का
हँसी से
दराती और घास की पिण्डी
पांनी में
बह रहे हैं
कितने शब्द
तुम,
कनु से कह दो
पापा यहीं हैं फिलहाल
पर
हमेश कोई नहीं रह सकता
बाहर-
चादर खिसका दी छोटी ने
मच्छरों को हिदायत
नहीं है
अनु को न काटने की
उढा दो...