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बात करो केदार खरी / केदारनाथ अग्रवाल

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जय जय जय गोपाल हरी
बात करो केदार खरी
ठोंकी-पीटी धार-धरी
लपलप चमकै ज्यों बिजरी

नेतों की मति गई हरी
दोनों आँखें हैं अँधरी
बातें करते हैं जहरी
जनता को कहते बकरी

शासन की नदिया गहरी
बहती है मद से अफरी
किंतु नहीं भरती गगरी
सुख-सुविधा से एक धरी

अँगरेजों की वही दरी
आज बिछाए खून भरी
बैठे हैं ताने छतरी
मंत्रीगन परसे पतरी

रचनाकाल: १८-१०-१९५५