बात नहीं है कछु तो फिर बतरामें चौं / सालिम शुजा अन्सारी
बात नहीं है कछु तो फिर बतरामें चौं...
सुनबे बारौ कोई नाय... टर्रामें चौं...
तैने सिगरी पोथी चौपड़ चाट लई...
हम मूरख हैं हम तोकूँ समझामें चौं...
दाता ने दुई आँख दई ऐं देखन कूँ...
अँधे हैं का..अँधन से टकरामें चौं...
दास हमईं हैं हमईं द्वार तक जानो है...
बे राजन हैं बे कुटिया तक आमें चौं...
जानत हैं हम चार दिनन कौ है मंगल...
झूमें...नाचें..इठलामें ...इतरामें चौं...
हम हूँ कान्हा की नगरी के बासी हैं...
कोऊ-काऊ से पीछे हम रह जामें चौं..
थोड़ी तो कट गई थोड़ी कट जामेगी...
रोबें...पीटें...चीखें...और चिल्लामें चौं...
हम पे का आरोप धरोगे तुम सोचो...
हम निश्छल हैं हम तुम सूँ सरमामें चौं...
दुनिया तो इक माया मोह का जाला है..
जीवन पन्छी कौ जामें उलझामें चौं...
तुमने अपुनी सूरत ही बिसराय दई...
तुम को "सालिम" इब दरपन दिखलामें चौं...