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बात रुक-रुक का बढ़ी फिर हिचकियों में आ गई / गौतम राजरिशी

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बात रुक-रुक कर बढ़ी, फिर हिचकियों में आ गई
फोन पर जो हो न पायी, चिट्ठियों में आ गई

सुब्हर दो ख़ामोशियों को चाय पीते देख कर
गुनगुनी-सी धूप उतरी, प्यालियों में आ गई

ट्रेन ओझल हो गई, इक हाथ हिलता रह गया
वक़्ते-रुख़सत की उदासी चूड़ियों में आ गई

अधखुली रक्खी रही यूँ ही वो नॉवेल गोद में
उठ के पन्नों से कहानी सिसकियों में आ गई

चार दिन होने को आये, कॉल इक आया नहीं
चुप्पी मोबाइल की अब बेचैनियों में आ गई

बाट जोहे थक गई छत पर खड़ी जब दोपहर
शाम की चादर लपेटे खिड़कियों में आ गई

रात ने यादों की माचिस से निकाली तीलियाँ
और इक सिगरेट सुलगी, उँगलियों में आ गई


(मासिक वागर्थ, सितम्बर 2013)