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बात होती है फुसफुसा कर के / कैलाश झा 'किंकर'

बात होती है फुसफुसा कर के।
शक का पौधा ज़रा उगा कर के।

हम भी सुनते न बेकरारी में
कान दीवार से सटा कर के।

हैसियत के बिना चले लड़ने
लफ़्ज़ की धार को पिजा कर के।

झूठ चलने का अब समय बीता
चल रहा सच है सिर उठा कर के।

तीसरी आँख देखती नभ से
सैटलाइट लगा-लगा कर के।

हमवतन साथ-साथ चलते हैं
हर क़दम से क़दम मिला करके।