भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
बादलों-से बरस गए / कुमुद बंसल
Kavita Kosh से
1
जो बादलों-से बरस गए,
वे बन गये समन्दर।
छिपे रहे जो मेरे नैनन,
मैं डूबी उनके अन्दर।।
2
भीष्म, अर्जुन समा गए,
इतिहास में।
शकुनि-सोच है बहुत लोगों
के पास में ।।
3
जीवन में मिलती रहती,
चुनौतियों की भेंट रोज़ ।
उड़ाकर उनकी पतंगें,
हम भी करते मौज।।
4
थी उसकी रग-रग में,
धूर्त्तता, धोखा, मक्कारी।
मिलते ही हल्दी-गाँठ,
बंदर बना पंसारी।।
-0-