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बादल-बिजुरी-बरखा आये / हम खड़े एकांत में / कुमार रवींद्र
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आधी रातों
बादल-बिजुरी-बरखा आये
सपने भीजे
सपनों में भी तपी देह थी-झुलसी साँसें
अंधे युग की किसिम-किसिम की
निर्मम फाँसें
पाँव राख में धँसे हुए थे
वे भी सीझे
मैघों को हमने अपनी बाँहों में भींचा
मरुथल हुए हृदय को
हमने जी-भर सींचा
सोंधी गंध उठी माटी से
उस पर रीझे
उमग सहेजा बूँद-बूँद जल की मिठास को
नहलाया जन्मों-जन्मों की
थकी प्यास को
अपनी दुर्बलताओं पर भी
सखी, पसीजे