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बादल-विदा / सांध्य के ये गीत लो / यतींद्रनाथ राही

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हो चुकी बरसात
अब तो ठहर जाओ!
बादलो!!
अब घर चलो
तुम भी विदा लो!

बात बीती
रात रीती
दिन उगा है
भोर का श्रृंगार धरती कर चुकी है
तृप्त हैं
सारे नदी-नद, सर-सरोवर
प्यास की गागर हमारी
भर चुकी है
गीत गुंजित
तरु-लता-पादप विमुग्धित
खुशबुयें
अभिसार को उद्यत खड़ी हैं
बैठ जाओ तनिक
श्रम-सीकर सुखालो!
आचरण की यह
बनावट औ मिलावट
धो चले, जितनी धुली
तुमसे सियासत
आदमीयत डूबकर
मरती रही जब
समझ ली हमने
हमारी खुद हक़ीक़त
खूब बरसे
प्यार, नारे, तालियाँ भी
नफरती बौछार कुछ कुछ गालियाँ भी
रह गयी हो प्यास
तो वह भी बुझा लो!

फिर बुलायेंगे कभी तो लौट आना
जो कहा, जो भी सुना
सब भूल जाना
कौन किसका है मुखौटों के नगर में
कब लुटे कोई न जाने किस डगर में
हो असीमित गगन में
विचरण निरामय
है पयोधर
तुम सदा बरसो सुधामय
नेह के ये मांगलिक
अक्षत सँभालो!