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बादल के हैं रूप अनेक / संजीव ठाकुर

बादल के हैं रूप अनेक
कभी रेत का सागर लगता
लगता कभी पहाड़
कभी-कभी लगता है जैसे
वह हो कोई शेख!

बादल के हैं रूप अनेक
कभी धुआँ सा फैला रहता
रहता कभी दहाड़
कभी-कभी लगता है जैसे
लिखा किसी ने लेख!

बादल के हैं रूप अनेक
कभी बर्फ का ढेर है लगता
लगता कभी किबाड़
कभी-कभी लगता है जैसे
रहें रुई को फेंक!

बादल के हैं रूप अनेक
कभी नदी सा है वह है दिखता
कभी झाड-झंकाड
कभी-कभी लगता है जैसे
रहें सिनेमा देख!