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बादल तुम आज मगर / प्रमोद तिवारी
Kavita Kosh से
गाँव-गाँव, नगर-नगर
डगर-डगर बरसो
बादल तुम आज मगर
ठहर-ठहर बरसो
जल्दी में आते हो
और चले जाते हो
कितनी गलियाँ-आँगन
देख नहीं पाते हो
चोरों की तरह नहीं
गुजरो इस बस्ती से
बादल तुम खुलेआम
हर हर हर बरसो
पिछले चौमासे के बाद
अब हुआ आना
क्या-क्या बीती पीछे
तुमने यह कब जाना
बच्चे तक
कागज़ की नावों को
भूल गये
बादल तुम नदिया की
लहर-लहर बरसो
अंदाजा होगा ही
सूरज के गुस्से का
खलिहानों में तुमको
मुखिया के हिस्से का
अपना बोना
अपना काटना
नहीं होता
बादल तुम
गेहूँ, चावल, अरहर बरसो
याद तुम्हारी करके
माँ अक्सर रोती है
परदेसी बेटे से
आस बहुत होती है
बाबा की आँखों में
एक नहर सूख गई
बादल तुम आज
उसी नहर-नहर बरसो