बादल / अंतर्यात्रा / परंतप मिश्र
जब मैं बादलों को देखता हूँ 
हवा के झोंको के साथ उड़ते हुए 
मेरा मन मयूर बन नाचने लगता है 
प्रेम के आनन्द वृष्टि से तन-मन सराबोर 
मेरा भावुक मन उड़ चलता है 
मधुर कल्पनाओं की मादक बयार में 
मेरे भावनाओं के बादलों को, और 
आकांक्षाओं को पंख लग जाते हैं
तुच्छ स्वार्थ और इस भौतिक संसार से
बहुत दूर, मेरे अंतरतम उद्यान में
मादक बयार और प्रेम घन वृष्टि का स्पर्श 
आनंद के रोमांच की अव्यक्त प्रतीति 
स्वच्छंद विचरण के अनमोल पल 
नव प्रभात की लालिमा सी सकुचाती
लरजते पुष्प गुच्छों के सौन्दर्य पर मुग्ध 
ओस के मोती बन साहचर्य पाना
स्वतंत्र विचारों का पवित्र भावनाओं के साथ 
अटूट अदृश्य निष्काम आलिंगन 
मधुमास की मधु से टपकती 
एक प्यारी कुँवारी बूँद का प्रथम समागम
तपती धरती के होठों का चुम्बन 
गीली मिट्टी की हवा में तैरती सोंधी सुगंध 
शब्दों में समाहित मंगल कामनाएँ
मेरी कविता की अनजान डगर 
भावनाओं के आवारा बादल 
कल्पना का आलम्बन लेकर 
आप तक जब कभी पहुँचें 
एक उत्सव की तरह 
मना लेना इस आनन्द पर्व को 
हृदय की मौन मुस्कान ही 
मेरा प्रशस्ति ज्ञापन होगा। 
तो, आओं स्वीकार करो आमंत्रण 
भावनाओं की बदरी में
सभी संताप को तिरोहित कर 
आनंद के प्रवाह में बहते हुए 
कुछ गुनगुना लो मन से 
मेरे शब्दों में तुम्हारी उपस्थिति 
विचारों में कल्पना की तरह 
बादलों में भावनाओं की तरह 
बह जाने दो, भीग जाये अंतस 
मौसम के बन्धनों से मुक्त 
ओस के मोती हमारे।
	
	