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बादशाहत दो जहाँ की भी जो होवे मुझको / सौदा
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बादशाहत दो जहाँ की भी जो होवे मुझको
तेरे कूचे की गदाई[1] से न खोवे मुझको
आठ पहर उसको है नज़्ज़ार-ए-ख़ूबाँ की[2] तलाश
कहीं ये दीदा[3] डरूँ हूँ न डुबोवे मुझको
की मैं जब अर्ज़े-तमन्ना तो ये बोला ज़ालिम
फिर कहे मुझसे तू ये बात तो रोवे मुझको
ख़िरमने-बर्क़ज़दा का[4] हूँ वो दाना कि मुझे
न कोई मुर्ग़ चखे नै[5] कोई बोवे मुझको
ख़ुश्क रखती है कभू चश्म जो दामन तुझ बिन
आस्तीं चाहती है ख़ूँ से भिगोवे मुझको
क़ता
कुछ कहें गो कि मुख़ालिफ़[6] मिरे हक़ में 'सौदा'
वूँ[7] न समझे वो मुझे कहते हैं जो वे मुझको
हों गरेबाने-दिले-यार में उल्फ़त का गिल[8]
दाग़ नयन दामने-इस्मत पे जो धोवे मुझको