भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

बादशाह / शब्द प्रकाश / धरनीदास

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

बादशाह एक रामजी, साधु सु-मनसबदार।
और बसै सब रैयता, धरनी कहै पुकार॥1॥

धरनी सो पतिशाह है, जो सबकी पति राखु।
हक नाहक व्यौरा करै, मिथ्या वचन न भाषु॥2॥

धरनी जो कोइलहिँ मिलै, सौ गाडी भरि सोन।
तबहु हराम न काजिये, पादिशाह को लोन॥3॥

धरनी शिर सुल्तान है, कर पगु बनो वजीर।
इन्द्रिय बेगम होइ रहीं, लश्कर आपु शरीर॥4॥

धरनी तनमें तख्त है, ता ऊपर सुल्तान।
लेता मोजरा सबन को, जँहलों जीव जहान॥5॥