भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

बादा ए गुल को सब अंदोह रूबा कहते हैं / 'रविश' सिद्दीक़ी

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

बादा ए गुल को सब अंदोह रूबा कहते हैं
अश्क ए गुल रंग में ढल जाए तो क्या कहते हैं

फ़ुर्सत-ए-बज़्म भी मालूम कि अरबाब-ए-नज़र
शोला-ए-शम्मा को हम दोश-ए-सबा कहते हैं

ये मुसलसल तिरा पैमाँ तिरी पैमाँ-शिकनी
हम इसे हासिल-ए-पैमान-ए-वफ़ा कहते हैं

क़स्र-ए-आज़ादी-ए-इंसाँ ही सही मय-ख़ाना
दर-ए-मय-ख़ाना की ज़ंजीर को क्या कहते हैं

ये रह-ए-ग़म के ख़म-ओ-पेच अजब हैं जिन को
ख़ुश-नज़र साया-ए-गेसू-ए-रसा कहते हैं

इश्क़ ख़ुद अपनी जगह मज़हर-ए-अनवार-ए-ख़ुदा
अक़्ल इस सोच में गुम किस को ख़ुदा कहते हैं

कोई किस दिल से भला उन का बुरा चाहेगा
जो भले लोग बुरों को भी भला कहते हैं

दिल-नशीं तेरे सिवा कोई नहीं कोई नहीं
कौन हैं वो जो तुझे दिल से जुदा कहते हैं

यही दीवाना जो फूलों से भी कतराता है
क्या इसी को ‘रविश’-ए-आबला-पा कहते हैं