बादा ए गुल को सब अंदोह रूबा कहते हैं / 'रविश' सिद्दीक़ी
बादा ए गुल को सब अंदोह रूबा कहते हैं
अश्क ए गुल रंग में ढल जाए तो क्या कहते हैं
फ़ुर्सत-ए-बज़्म भी मालूम कि अरबाब-ए-नज़र
शोला-ए-शम्मा को हम दोश-ए-सबा कहते हैं
ये मुसलसल तिरा पैमाँ तिरी पैमाँ-शिकनी
हम इसे हासिल-ए-पैमान-ए-वफ़ा कहते हैं
क़स्र-ए-आज़ादी-ए-इंसाँ ही सही मय-ख़ाना
दर-ए-मय-ख़ाना की ज़ंजीर को क्या कहते हैं
ये रह-ए-ग़म के ख़म-ओ-पेच अजब हैं जिन को
ख़ुश-नज़र साया-ए-गेसू-ए-रसा कहते हैं
इश्क़ ख़ुद अपनी जगह मज़हर-ए-अनवार-ए-ख़ुदा
अक़्ल इस सोच में गुम किस को ख़ुदा कहते हैं
कोई किस दिल से भला उन का बुरा चाहेगा
जो भले लोग बुरों को भी भला कहते हैं
दिल-नशीं तेरे सिवा कोई नहीं कोई नहीं
कौन हैं वो जो तुझे दिल से जुदा कहते हैं
यही दीवाना जो फूलों से भी कतराता है
क्या इसी को ‘रविश’-ए-आबला-पा कहते हैं