बाद में / लुइस ग्लुक / श्रीविलास सिंह
पढ़ते हुए जो लिखा है मैंने अभी अभी, मैं अब करती हूं विश्वास
मैं रुक गयी थी उतावलेपन में, इसलिए लगती है मेरी कहानी
थोड़ी विरुपित सी, अंत जैसे कि हुआ, एकाएक नहीं बल्कि
यूँ जैसे छिडक दिया गया हो एक बनावटी कुहासे जैसा कुछ
रंगमंच पर मुश्किल दृश्य परिवर्तन की सुविधा हेतु।
मैं क्यों रुकी ? क्या किसी सहज बुद्धि वश
पहचाना किसी आकृति को, मेरे भीतर के कलाकार ने
हस्तक्षेप करते हुए रोकने को ट्रैफिक, जैसा कि था?
एक आकृति। अथवा भाग्य, जैसा की कहते हैं कवि,
सहज ज्ञान वश उन कुछ बहुत पहले के घंटों में
मुझे सोचना चाहिए था एकबार।
और तब भी मैं नापसंद करती हूँ पारिभाषिक शब्द
जो लगता है मुझे एक वैसाखी, एक दौर,
मस्तिष्क की किशोरावस्था, संभवतः
अभी भी, यह था एक शब्द ही जिसका प्रयोग किया था मैंने स्वयं,
अनेक बार व्याख्यायित करने को अपनी असफलताएँ।
भाग्य, प्रारब्ध, जिनकी साजिशें और चेतावनियाँ
अब मुझे लगती हैं मात्र
स्थानिक समरूपतायें, लाक्षणिक
तुच्छताएँ भीषण अव्यवस्था के बीच
अराजक था जो कुछ मैंने देखा।
जड़ हो गयी मेरी कूँची- मैं नहीं कर सकी पेंट यह सब।
अंधेरा, सन्नाटा : बस यही हुई अनुभूति।
इसे हम क्या कहते थे फिर?
मेरे विश्वास में था यह “दृष्टि का संकट”, परिपेक्ष्य में
उस वृक्ष के जिसने किया था साक्षात्कार मेरे माँ-बाप का,
किंतु जहाँ कि वे जबरन धकेल दिए गए
बाधाओं के सम्मुख,
मैं पीछे हट गयी अथवा कर गयी पलायन
कुहासे ने ढँक लिया था रंगमंच ( मेरा जीवन)।
पात्र आए और गए, बदलती गईं पोशाकें,
मेरा कूँची वाला हाथ चलता रहा किनारे से किनारे को
कैनवास से दूर,
किनारे से किनारे को, विंडशील्ड वाइपर की भांति।
निश्चय ही यह थी मरुभूमि, एक काल रात्रि।
( वास्तव में लंदन की एक भीड़ भरी गली,
रंगीन नक्शे लहराते टूरिस्ट।)
कोई बोलता है एक शब्द: मैं।
इस धारा के बाहर
महत्तर प्रारूप
मैंने ली एक गहरी साँस। और लगा मुझे
कि वह व्यक्ति जिसने ली थी साँस
नहीं था मेरी कहानी का व्यक्ति, उसके बचकाने हाथ
आत्मविश्वास से पकड़े हुए थे क्रेयॉन्स
क्या मैं रही होती वह व्यक्ति ? एक बच्चा पर साथ ही
एक अन्वेषक भी जिसके लिए पथ हो गया है एकाएक स्पष्ट,
जिस के लिए राह देते हैं झाड़-झंखाड़
और उससे परे, अब नहीं था दृष्टि के परदे पर, वह महत्तर
एकांत जिसकी अनुभूति हुई थी कांट को
पुलों की ओर जाते हुए
(हम दोनों का जन्मदिन एक है।)
बाहर, उत्सव मनाती गलियाँ
तनाव में थी, जनवरी के अंतिम दिनों में, थकी हुई स्ट्रीट लाइट्स के साथ।
एक औरत झुकी थी अपने प्रेमी के कांधे पर
गाती हुई ज्याँ ब्रेल का गीत अपने क्षीण आलाप में
शाबास ! बंद हो गया द्वार।
अब कुछ भी जाता नहीं है बाहर, न कुछ आता है भीतर ही
मैं हिला नहीं था, मैंने महसूस किया मरुभूमि को
फैलते हुए आगे की ओर, फैलते हुए (अब लगता है ऐसा )
चारों ओर, जगह बदलते मेरे कहने के साथ ही,
इसलिए कि, मैं था निरंतर
आमने सामने ख़ालीपन के,
परमसत्ता की उस सौतेली संतान के,
जो कि, पता चला जैसा ,
था मेरा विषय भी और मेरा माध्यम भी।
क्या कहा होता मेरे प्रतिरूप ने, यदि पहुंचे होते मेरे विचार उस तक ?
संभवतः उसने कहा होता
मेरे मामले में थी नहीं कोई बाधा (तर्क के लिए )
जिसके बाद मैं
संदर्भित कर दिया गया होता धर्म को, उस कब्रिस्तान को
जहाँ उत्तर दिए जाते हैं विश्वास के प्रश्नों के।
छंट चुका था कुहासा, खाली कैनवास
मोड़ दिए गए थे भीतर की ओर, दीवार से लगा कर।
मर गयी है नन्ही बिल्ली (जैसा कि गीत है)
क्या किया जाऊंगा मैं पुनर्जीवित मृत्यु से, पूछती है आत्मा।
और सूर्य कहता है हाँ।
और उत्तर देता है मरुस्थल
तुम्हारी आवाज़ है हवा में बिखरे हुए रेत के कण।