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बानिहाल पर्वत और किसान / मिर्ज़ा गुलाम हसन बेग 'आरिफ'

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तुम किधर चढ़े
बानिहाल पर्वत‍ के ऊपर से
उतरने उस पार नंगे पाँव
दूर तक फैली बर्फ़
बेरहम धूप को सहते
बुख़ार से दो चार
पीठ पर लादे बोझ लिए
चढ़े तुम काँपती टाँगों से
                   नंगे पाँव चढ़े
 बर्फ़ पर बेहिसाब चढ़े
 झुलस०० गए होंगे न पैर तुम्हारे

उस पार की भूखे पेट मजूरी तुमने दिन-रात

अब लौट आए हो परदेस से
ख़ाली हाथ फटेहाल
आंधियों से गुज़रते
चढ़ आए पर्वत बानिहाल

छाले पड़े होंगे कितने ही
पाँवों में तुम्हारे
कितना झुलस गए होंगे

वो जो बैठा है वातानुकूलित अपने घर में
उस मालिक का बोझ उठाए
गदहे बनकर
     तुम चढ़ आए पर्वत

अपने हाथ और पैर के बीच फैलती दूरी में कहीं
तुम खड़े निचाट नंगे हो
हार चुके हो धान की परायी खेतों में सकत पूरी अपनी

बाट जोह रहे बाल-बच्चे तुम्हारे
कि लाओगे ढेर सा सामान
पर...

कैसे चढ़ोगे पर्वत
हो चुके दुर्बल हो
आओ, सुस्ता लो इसी बर्फ़ पर
यह बर्फ़ धो डालेगी
दाग तुम्हारे दिल के
हवा रहेगी वसन्त की साक्षी
आओ, पाँव तुम्हारे
झुलस गए होंगे
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० कश्मीर से शेष भारत के मैदानों में उतरने का एक पुराना पैदल मार्ग बानिहाल ( सं.वनशाला) पर्वत के ऊपर से होकर जाता था।
०० बर्फ से भी विदग्ध होते हैं हाथ पाँव। इसलिए झुलसना शब्द है। बर्फ़ की आँच को कश्मीरी में ' शीन दग '( शीन= बर्फ़ और दग= जलन) कहते हैं।