भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

बान्ह-छान्ह / हरेकृष्ण झा

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

 
उषा विभोर होइत छथि सेबमे
धरतीक चम्पइ रससँ अभीभूत:
कतेक विभोर होइत छी हमरा लोकनि ?

सेब खएबा काल
कतेक छिटकैत अछि
ओकर कांति
शोणितमें ?

दुखित पड़ैत छी
त कनेक टुटैत छैक
ओकर बान्ह छेक
हमरा सभक लेल,
वा कोनो पाबनि-तिहार
अएला पर।

मुँह चलैत अछि,
आँत धरि पहुँचैत अछि
ओकर रस,
मुदा आत्माकें औंसवासँ पहिनहि
छेक लेल जाइत अछि।
बहुत नमहर छेक छैक
एहि बान्ह छान्हक,
जे बहुतोक लेल
कहिओ नहि टुटैत छैक।

छिटकल रहि जाइत अछि जीवनसँ
धरतीक लेल आकाशक ओ अनुराग
जे रूप धरैत अछि सेबमे
निरसल रहि जाइत छैक ओकर ललक
हमरा लोकनिक अंतरंग होएबाक।